History -इतिहास 11
प्रश्न– बलबन की “रक्त और लौह” की नीति की विवेचना कीजिए । Describe Balban’s ‘Blood and Iron’ Policy.)
अथवा
बलबन की “लौह एवं रक्त” की नीति से आप क्या समझते हैं? अपने उत्तर की पुष्टि के लिए यथा सम्भव उदाहरण दें। (What do you understand by the ‘Blood and Iron’ Policy of Balban.)
बलबन की ‘लौह और रक्त’ नीति से आपका क्या अभिप्राय है? उसने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ बनाने के लिए कौन-कौन से कार्य किए ? (What do you understand by the Blood and Iron’ policy of Balban? What measures were taken by him to consolidate the Delhi Sultanate?)
उत्तर– परिचय: बलबन के बचपन का नाम बहाउद्दीन था। वह इलवरी कबीले का तुर्क था। बलबन 1266 ई. में भारत का सुलतान बना और उसने 1286 ई. तक शासन किया। उस समय देश की राजनीतिक व्यवस्था बड़े नाजुक दौर में थी क्योंकि दिल्ली के सुल्तान दुर्बल थे जिसके कारण स्थान-स्थान पर विद्रोह हो रहे थे। इस समय राजपद की प्रतिष्ठा का पतन हो चुका था। चालीसा के सरदार ‘नृप निर्माता’ की भूमिका निभाते थे। सुलतान उनके हाथों में कठपुतली बनकर रहता था। लोगों का जीवन, सम्मान व सम्पत्ति सुरक्षित न थी। मंगोलों के आक्रमणों का भय बना रहता था। इन परिस्थितियों से निपटने तथा शान्ति व सुरक्षा को पुनः स्थापित करने और राजकीय प्रतिष्ठा को बहाल करने के लिए बलबन ने कठोर नीति अपनायी, जिसे ‘लौह और रक्त’ की नीति के नाम से जाना जाता है। उसके बीस वर्ष के शासन काल में उसकी तलवार विद्रोहियों, मंगोलों के उपद्रवी सरदारों तथा चोर डाकुओं का खून बहाती रही। वह अपनी इस नीति में पूर्णरूप से सफल रहा। उसकी लौह और रक्त की नीति का वर्णन निम्न प्रकार है :-
बलबन की लौह और रक्त की नीति (Balban’s Policy of Blood and Iron) —
1. सेना का पुनर्गठन :– बलबन इस बात को समझता था कि उसकी लौह और रक्त की नीति की सफलता के लिए उसकी सैनिक शक्ति विशाल एवं सुदृढ़ होनी चाहिए। उसके बिना विद्रोही तत्वों का दमन सम्भव नहीं। उसने अपनी सेना का पुनर्गठन किया। ऐबक के समय सैनिक व्यवस्था जागीर प्रथा पर आधारित थी। बहुत से जागीरदार ऐसे थे जो राज्य के प्रति वफादार नहीं थे और सुल्तान की कोई सेवा नहीं करते थे। बलबन ने सेना की कमियों को दूर करने का निर्णय लिया। उसने इमाद-उल-मुलक नामक एक योग्य सैनिक को ‘दिवाने-ए-अरिज’ नियुक्त किया और उसे सेना का महत्त्वपूर्ण प्रबंध सौंपा गया। उसने बूढ़े और अयोग्य सैनिकों को निकाल कर योग्य सैनिकों की भर्ती की सेना में अनुशासन लागू किया और दुर्गों का निर्माण व मरम्मत करवाई। शस्त्र निर्माण करवाये गये। सारे राज्य में सड़कों का जाल बिछवाया ताकि संकट के समय सैनिक चौकियों पर सहायता के लिए सेना शीघ्र भेजी जा सके। दिल्ली के निकट बड़े-बड़े सैनिक शिवरों में सैनिकों को प्रशिक्षण दिया जाने लगा। इस कुशल सेना के कारण बलबन देश में शान्ति की स्थापना करने में सफल हुआ।
2. मेवों का दमन:– दिल्ली साम्राज्य में अशान्ति व अराजकता फैलाने में मेवात के डाकुओं का बहुत बड़ा हाथ था। बलबन ने अपने प्रधानमंत्री काल में 2000 मेवों के मौत कि घाट उतार दिया लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे फिर से शक्ति प्राप्त कर ली थी। वे दिन में ही लोगों को लूट लेते थे। उनके डर के मारे राजधानी का पश्चिमी द्वार सायंकाल होते ही बन्द कर लिया जाता था। बलबन ने एक विशाल सेना द्वारा मेवातियों को घेर लिया और एक लाख मेवों को मार डाला। जो मेव जंगलों में छिप गये उन्हें भी ढूंढ निकाला गया। उसने सभी जंगलों को साफ करवा दिया और कई स्थानों पर सैनिक चौकियों स्थापित कीं। इन चौकियों पर युद्ध प्रिय अफगानों को नियुक्त किया। बलबन की इस कठोर नीति के कारण प्रजा को मेवों के अत्याचारों से छुटकारा मिल गया।
3. कटेहर के विद्रोह का दमन :- जब बलबन दोआब क्षेत्र में शांति स्थापना में लगा हुआ था तो कटेहर (रुहेलखण्ड) के हिन्दुओं ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने इतना बड़ा उपद्रव खड़ा किया, जिसे बदायूं और अमरोह के सूबेदार भी न दबा सके। शीघ्र ही बलबन ने एक विशाल सेना के साथ इस क्षेत्र की ओर प्रस्थान किया और विद्रोहियों को पराजित किया। उसने असंख्य लोगों को मार डाला। बरनी ने लिखा है कि प्रत्येक गांव के पास मृतकों के ढेर के ढेर देखे जा सकते थे तथा विद्रोहियों का खून पानी में इस तरह से बहा कि गंगा के पानी से बदबू आने लगी। इस प्रकार रुहेलखण्ड में शांति की स्थापना । कटेहर के हिन्दुओं ने फिर कभी विद्रोह करने का साहस तक नहीं किया।
4. बंगाल के विद्रोह का दमन:- मुस्लिम राज्य काल में बंगाल सदा सुल्तानों के लिए सिरदर्द बना रहा। बलबन के राज्य काल के अन्तिम वर्षों में बंगाल के प्रान्त का गवर्नर तुगरिल खां था जो बलबन का दास था। 1279 ई. में बलबन बीमार हुआ तो मंगोलों के आक्रमण होने लगे। अतः तुगरिल खांन ने भी विद्रोह कर स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। उसने अपने नाम पर सिक्के भी चला दिये तथा खुतबा भी पढ़वाया। बलबन ने अमीर खां को इसे परास्त करने भेजा, परन्तु वह स्वयं हार कर वापस अवध आ गया। बलबन ने उसे कायर कह कर फांसी पर लटकवा दिया। फिर उसने एक शाही सेना तुगरिल पर आक्रमण करने के लिए भेजी, वह भी हार गई। अब बूढ़े सुलतान की रगों में यौवन का रक्त दौड़ने लगा। उसने दिल्ली का भार उसके कोतवाल मलिक फखरुद्दीन पर छोड़ अपने पुत्र बुगरा खां के साथ बंगाल की ओर प्रस्थान किया। यह सुनकर तुगरिल खां बंगाल की राजधानी लखनौती छोड़ कर जाजनगर के जंगलों में भाग गया। बलबन ने प्रण किया कि वह उसे बन्दी बनाए या मारे बिना दिल्ली नहीं लौटेगा। अन्त में जंगल से उसे ढूँढ निकाला। उसका सिर काट कर नदी में फेंक दिया। इसके पश्चात् सुलतान ने बंगाल में भी भयंकर अत्याचार किये। इस प्रकार प्रतिरोध की आग को शान्त कर अपने पुत्र बुगरा खां को बंगाल का शासक नियुक्त किया। इस प्रकार की सजा देकर बलबन ने अन्य प्रान्तों के शासकों को दिखा दिया कि वह विद्रोह सहन नहीं कर सकता।
5. दोआब के विद्रोह का दमन:- मेवों का दमन करने के बाद बलबन ने दोआब के हिन्दू विद्रोहियों की ओर ध्यान दिया। दोआब प्रदेशों में डाकुओं ने अराजकता फैला रखी थी। इन लुटेरों ने दिल्ली और बंगाल के यात्रियों के लिए मार्ग को असुरक्षित बना दिया था। लूट-मार के कारण भारतीय व्यापार को भी बहुत हानि हुई। भोजपुर, पटियाली और काम्पिल डाकुओं के अड्डे बन चुके 12 है। बलबन ने इनका दमन करने के लिए कठोर नीति का पालन किया। वह स्वयं उनके दमन लिए सेना लेकर पहुंचा। उसने दोआब के जंगलों को कटवा दिया तथा सैनिक चौकियाँ स्थापित की उसने विद्रोहियों के दुर्गों को नष्ट करवा दिया और हजारों डाकुओं, उनकी स्त्रियों तथा बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। हर गांव और जंगलों के पास लाशों के ढेर दिखाई देने लगे। शवों की बदबू गंगा के किनारे तक जा पहुंची। इस प्रकार रक्त और लौह की नीति से बलबन ने दोआब में शांति स्थापित की। बरनी स्वयं दोआब क्षेत्र का था लिखा है कि पिछले साठ वर्षों से सड़कें डाकुओं के खतरे से सुरक्षित थीं।
6. कठोर तथा निष्पक्ष न्याय:- बलबन ने अपने समय कठोर दण्ड तथा निष्पक्ष न्याय व्यवस्था की स्थापना की ताकि लोग अपराध करने से डरें। उदाहरणस्वरूप : बदायूं के गवर्नर बक-बक को प्रजा के सामने इतना पीटा कि वह मर गया क्योंकि उसने अपने नौकर को पीट कर मार डाला था। बलबन ने अवध के सूबेदार हैबत खां को प्रजा के सामने 500 कोड़े लगाने की सजा दी। इस प्रकार अन्य अपराधियों को भी संख्त सजाएँ दी जाती थीं। ताकि वे अपराध करने का साहस न कर सकें। यह बलबन की लौह व रक्त नीति का ही परिणाम था कि उसके साम्राज्य में शांति तथा सुरक्षा स्थापित हो गई।
7. मंगोलों के प्रति नीति :- बलबन की सबसे बड़ी सिरदर्दी का कारण मंगोल थे। मंगोलों को अमीर खुसरो “सफेद राक्षस” के नाम से पुकारता था। उन्होंने गजनी तक के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था और मुल्तान, लाहौर व सिन्ध के प्रदेशों को उजाड़ दिया था। नसिरुद्दीन के समय बलबन ने मंगोलों को बुरी तरह हराया था। बलबन और मंगोलों के नेता हलाकू के बीच समझौते से भी समस्या का समाधान न हो सका। अब बलबन ने अन्य प्रदेशों की विजय का कार्यक्रम छोड़ कर, दिल्ली में रह कर उत्तर-पश्चिमी सीमा की ओर ध्यान देने लगा। सुलतान ने मंगालों के आक्रमण स्थलों पर नये दुर्गों का निर्माण करवाया तथा पुराने दुर्गों की मरम्मत भी करवाई। अस्त्र-शस्त्र के निर्माण के अतिरिक्त उन्हें अधिक उपयोगी बनाने पर ध्यान दिया गया।
8. कुशल गवर्नरों की नियुक्ति :- मंगोलों के आक्रमणों से निपटने के लिए बलबन ने समाना, मुलताना, व दिवालपुर को मिलाकर एक सीमा प्रान्त बना दिया। उसने प्रान्त की सुरक्षा के लिए शेर खां, मुहम्मद तथा बुगरा खां जैसे कुशल सेनापतियों को इन स्थानों पर गवर्नर नियुक्त किया। शेर खां ने जिस साहस से मंगोलों के आक्रमण का सामना किया उसके शत्रुओं के दिल में शेर खां के प्रति इतना डर पैदा कर दिया कि जब तक वह जीवित रहा मंगोलों ने आक्रमण करने का साहस नहीं किया।
9. सेना में सुधार :- बलबन सेना के महत्त्व को भली भांति समझता था इसलिए उसने सबसे पहले सेना को पुनः गठित किया। उसने तथा अयोग्य सैनिकों को निकाल कर उनके स्थान पर योग्य और युवक लोगों की भर्ती की। इस सेना के बल पर ही वह मेवात और दोआब के विद्रोह को दबाने में सफल हुआ तथा मंगोलों से अपने साम्राज्य को सुरक्षित रख सका।
10. राजपद की प्रतिष्ठा की स्थापना :- सुलतान बनने पर बलबन के सामने सबसे प्रमुख समस्या राजपद की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने की थी। जनता सरकार और कानून की परवाह नहीं करती थी। भरे दरबार में ही भद्दे मजाक किये जाते थे। बलबन जानता था कि दरबारी अमीर तथा सरदार समझाने से काबू नहीं आने वाले इसलिए उसने कठोर नीति अपना कर राजपद की प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए कदम उठाए। दरबार के रीति-रिवाज ईरानी आदर्श पर स्थापित किये। दरबारी ठाठ-बाट को बढ़ाने के लिए ईरानी त्योहार नौरोज को मनाना शुरू कर दिया। दरबारियों की पोशाक निश्चित कर दी गई। दरबार में आने-जाने वाले प्रत्येक पुरुष को राजा के सामने अधिक झुककर नमस्कार करना पड़ता था। कोई भी दरबार में शराब, जुआ तथा हँसी-मजाक नहीं कर सकता था, प्रतिष्ठा और भय जमाने के लिए बलबन ने लम्बे और डरावनी शक्लों वाले लोगों को अपना अंग-रक्षक नियुक्त किया, जो हमेशा नंगी चमचमाती तलवारें हाथों में लेकर राजा के साथ रहते थे। प्रधानमंत्री के अलावा बलबन से कोई सीधे बात नहीं कर सकता था। बलबन के दरबार के ठाठ-बाठ देखने दूर-दूर से लोग आते थे। इस प्रकार अमीर और जनता सुलतान से डरने लगी और उनका सम्मान करने लगी। यह बलबन की लौह एवं रक्त नीति का ही परिणाम था कि जिससे राजपद की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया जा सका।
मूल्यांकन:- निःसन्देह बलबन एक शक्तिशाली शासक था। जब वह सुलतान बना तो दिल्ली सल्तनत की दशा बड़ी शोचनीय थी, अशान्ति, अराजकता, विद्रोह तथा बाहरी आक्रमण का वातावरण बना हुआ था। देश में कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं थी। एक अनुभवी सेनानायक तथा कुशल प्रशासक के रूप में बलबन ने अपना ध्यान उन कठिनाइयों को समाप्त करने में लगाया, जिसके कारण राजपद की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचती थी। उसने सल्तनत के शत्रुओं का नाश करने के लिए तथा शांति और व्यवस्था पुनः स्थापित करने के लिए “लौह और रक्त” की नीति अपनायी। इस नीति को कठोरता से लागू करते हुए उसने सबसे पहले अपने सैनिक संगठन को सुदृढ़ करने का काम किया। इसी सेना के दम पर ही उसने अपने साम्राज्य में मेवों, कटेहर, दोआब, बंगाल के विद्रोह का दमन किया। मंगोलों के आक्रमणों से साम्राज्य को सुरक्षित करने के लिए नये दुर्गों का निर्माण करवाया और अस्त्र शस्त्र को उपयोगी बनाया गया। साम्राज्य में लूट-मार, डकैती और अत्याचार एवं अराजकता को समाप्त करने के लिए कठोर दण्ड विधान और निष्पक्ष न्याय प्रणाली की स्थापना की। इस तरह हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि बलबन ने “लौह और रक्त” की नीति अपनाकर अपने दिल्ली सल्तनत को नष्ट होने से बचा लिया तथा राजपद की प्रतिष्ठा में वृद्धि की।