(संस्कृत साहित्य )- नीतिशतकम् शलोक (1 .4)
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा,
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाऽभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ,
प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्।।4।।
प्रसङ्ग:– प्रस्तुतं पद्यमिदम् अस्माकं पाठ्यपुस्तक-नीतिशतक नाम्नः ग्रंथ उद्घृतं वर्तते। अस्य ग्रन्थस्थ रचनाकार: महाराजा: भर्तृहरि वर्तते। एत अस्मिंशच नीति विषयका: अनेके श्लोकाः संस्थित: । च मानवेभ्यः नीति शिक्षनति ।
अन्वय:-विपदि धैर्यम् अथ अभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता, युधि विक्रमः,यशसि अभिरुचिः श्रुतौ च व्यसनं, इदं हि महात्मनां प्रकृतिसिद्धम् ।
शब्दार्थ- विपदि = विपत्ति में। धैर्यम् = धीरज। अभ्युदये = उन्नति में।सदसि= सभा। वाक्पटुता = बोलने की चतुराई। युधि = लड़ाई में। विक्रम =पराक्रम। यशसि = कीर्ति में। अभिरुचिः = अभिलाषा। प्रकृतिसिद्धम् = स्वभाव ही से सिद्ध।
अनुवाद – विपत्ति में धीरज, अभ्युदय होने पर (अधिक उन्नति होने पर) क्षमा, सभा में बोलने की चतुराई, संग्राम में पराक्रम, यश में अभिलाषा और वेद शास्त्र (पढ़ने) में व्यसन (शौक), ये (सब गुण) महात्माओं में स्वभाव ही से सिद्ध होते हैं
भावार्थ – महापुरुष आपत्काल में भी अपने मन का सन्तुलन नहीं बिगड़ने देते। ऐश्वर्य सम्पन्न होने पर भी उनमें क्षमा, सहिष्णुता आदि गुण अपने आप आकर समा जाते हैं। सभा में वाक्-चातुर्य, युद्ध में पराक्रम, सुयश में प्रीति तथा वेद-शास्त्र में व्यसन महात्माओं के स्वाभाविक लक्षण होते हैं। उन्हें ये सब बातें किसी से सीखनी नहीं पड़ती।