(संस्कृत साहित्य )- नीतिशतकम् शलोक (1 .3)
प्रारभ्यते न खलु विघ्न-भयेन नीचैः,
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः,
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति।।3।।
प्रसङ्ग:– प्रस्तुतं पद्यमिदम् अस्माकं पाठ्यपुस्तक-नीतिशतक नाम्नः ग्रंथात उद्घृतं वर्तते। अस्य ग्रन्थस्थ रचनाकार: महाराज: भर्तृहरि: वर्तते। एतस्मिंशच नीतिविषयका: अनेके श्लोकाः सन्ति । मानवेभ्यः नीति शिक्षयंति ।
अन्वय – नीचैः विघ्नभयेन न प्रारभ्यते खलु, मध्याः प्रारभ्य विघ्नविहताः विरमन्ति, उत्तमजनाः विघ्नः पुनः पुनः प्रतिहन्यमानाः अपि प्रारभ्य न परित्यजन्ति।
शब्दार्थ- प्रारभ्यते = शुरू, आरम्भ किया जाता है। विघ्न = बाधा। प्रारभ्य:= आरम्भ करके। विहताः = पीडित। विरमन्ति = रुक जाते हैं। प्रतिहन्यमानाः ताड़ित होने पर। परित्यजन्ति = छोड़ते हैं।
अनुवाद – नीच लोग विघ्नों के भय से (किसी काम को) प्रारम्भ ही नहीं करते, मध्यम श्रेणी के लोग (काम) शुरू करके विघ्नों से चोट खाकर रुक जाते हैं (परन्तु) उत्तम जन बार-बार (विघ्नों के) प्रहार पड़ने पर भी आरम्भ किए (कार्य) को नहीं छोड़ते।
भावार्थ – संसार में नीच, मध्यम और उत्तम – ये तीन प्रकार मनुष्य होते हैं, उनका आचरण भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। नीच मनुष्य तो आगन्तुक बाधाओं के भयमात्र से किसी कार्य का आरम्भ ही नहीं करते, मध्यम प्रकार के मनुष्य यद्यपि काम का समारम्भ तो कर देते हैं परन्तु विक्षेप होने से बीच में ही अधूरा छोड़ देते हैं परन्तु उत्तम पुरुष ऐसे धैर्यवान् होते हैं कि बार-बार विघ्नों से संघर्ष करते हुए भी हाथ में लिए हुए कार्य को पूर्ण किये बिना कदापि परित्याग नहीं करते और इसी में उनकी सफलता निहित है।