(संस्कृत साहित्य )- नीतिशतकम् शलोक (1 .5)
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।3।।
प्रसङ्ग:– प्रस्तुतं पद्यमिदम् अस्माकं पाठ्यपुस्तक-नीतिशतक नाम्नः ग्रंथ उद्घृतं वर्तते। अस्य ग्रन्थस्थ रचनाकार: महाराजा: भर्तृहरि वर्तते। एत अस्मिंशच नीति विषयका: अनेके श्लोकाः संस्थित: । च मानवेभ्यः नीति शिक्षनति ।
अन्वय: – नीतिनिपुणाः निन्दन्तु, यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु,यथेष्टं वा गच्छतु, मरणमद्यैव वा अस्तु युगान्तरे वा (अस्तु)। धीराः न्याय्यात् पथः पदं न प्रविचलन्ति।
शब्दार्थ– निन्दन्तु = निन्दा करें। नीतिनिपुणाः = नीति-विशारद, नीतिज्ञ ,स्तुवन्तु = प्रशंसा करें। लक्ष्मीः = ऐश्वर्य, समाविशतु = आए , गच्छतु = जाए, यथेष्टम् = इच्छानुसार ,अद्यैव = आज ही, मरणमस्तु = मृत्यु हो जाए। युगान्तरे दूसरे युग में, न्याय्यात्पथः = उचित मार्ग से, प्रविचलन्ति = विचलित होते हैं, पदं पैर, पग, धीराः = धीरपुरुष।
अनुवाद – नीति विशारद निन्दा करें अथवा प्रशंसा करें, लक्ष्मी (पास) आए अथवा इच्छानुसार (दूर) चली जाए। आज ही मृत्यु हो जाए या दूसरे युग में हो, (परन्तु) धीर पुरुष उचित (न्याय) मार्ग से (कभी) विचलित नहीं होते।
भावार्थ – धीर-गम्भीर पुरुषों की नीतिज्ञ लोग चाहे निन्दा करें या प्रशंसाकरें उन्हें उनसे कोई प्रयोजन नहीं होता। उसी प्रकार इच्छानुसार सम्पत्ति मिल जाए अथवा न मिले इससे भी उन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ता। मृत्यु का समय उनके सामनेही क्यों न खड़ा हो परन्तु वे न्यायोचित मार्ग का कभी भी परित्याग नहीं करते। उसी में धीरपुरुषों की महत्ता भी है कि वे हर अवस्था में अपने आप को सन्तुलित बनाये रखते हैं .