(संस्कृत साहित्य )- नीतिशतकम् शलोक (1 .2)
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं, प्रच्छन्नगुप्तं धनम्,
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी, विद्या गुरूणां गुरुः।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने, विद्या परा देवता,
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं, विद्याविहीनः पशुः।।२।।
प्रसङ्ग:– प्रस्तुतं पद्यमिदम् अस्माकं पाठ्यपुस्तक-नीतिशतक नाम्नः ग्रंथात उद्घृतं वर्तते। अस्य ग्रन्थस्थ रचनाकार: महाराज: भर्तृहरि: वर्तते। एतस्मिंशच नीतिविषयका: अनेके श्लोकाः सन्ति । मानवेभ्यः नीति शिक्षयंति ।
अन्वय – विद्या नाम नरस्य अधिकं रूपम् (अस्ति) प्रच्छन्नगुप्तं धनम्(अस्ति) विद्या भोगकरी यशः सुखकरी (अस्ति), विद्या गुरूणां गुरुः (अस्ति), विद्या विदेशगमने बन्धुजनः (अस्ति), विद्या परा देवता (अस्ति)। विद्या राजसु पूज्यते, धनं न हि पूज्यते विद्या विहीनः (नरः) पशुः अस्ति।
शब्दार्थ – नरस्य = मनुष्य की। अधिकम् = उत्तम । प्रच्छन्नगुप्तम् = छिपा हुआ सुरक्षित। भोगकरी = भोगविलास देने वाली। गुरूणाम् = गुरुओं का।बन्धुजनः = सम्बन्धी। विदेशगमने = परदेश में जाने पर। परादेवता = उत्कृष्ट देवता। राजसु = राजाओं में। विहीनः = रहित।
अनुवाद – विद्या ही मनुष्य का उत्तम (सबसे अधिक सुन्दर) रूप है, छिपा हुआ सुरक्षित धन है, विद्या (ही) भोग-विलास देने वाली (तथा) यश और सुख देने वाली है, विद्या गुरुओं की भी गुरु है, परदेश जाने पर (विद्या ही) बन्धुजन(सम्बन्धी) है, विद्या (सबसे पूज्य) उत्कृष्ट देवता है, राजाओं के मध्य भी विद्या ही पूजी (आदर की) जाती है, धन नहीं, इसलिए विद्या से रहित मनुष्य पशु ही है।
भावार्थ– विद्या ही मनुष्य का सर्वोपरि सौंदर्य और अन्तर्हित गुप्त धन है। विद्या से सब भौतिक सुख प्राप्त किए जा सकते हैं। विद्या सदा, सर्वत्र, मनुष्य की सहायक होती है। धन की अपेक्षा विद्या का आदर-सत्कार सर्वत्र होता है तभी तो राजा महाराजा भी विद्या का जो सम्मान करते हैं वह धन का कदापि नहीं करते। इसी से तो कहा जाता है कि ऐसी अमूल्य विद्या के बिना मनुष्य निरा पशु ही होता है II२II
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