History -इतिहास 6
गुप्त सम्राटों के शासन प्रबन्ध का वर्णन करो। (Describe the Administrative System of the Imperial Guptas.) अथवा
गुप्तकालीन शासन प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो। (Explain the main features of the Gupta’s Administration.) अथवा
गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तार से वर्णन कीजिए। (Give a detailed account of Administrative System of Gapta Empire.)
उत्तर– भूमिका :- गुप्तकाल साम्राज्यवाद का युग था। समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने समस्त भारत पर विजय प्राप्त करके न केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, बल्कि इसको महान बनाने के लिए कुशल शासन प्रबन्ध की व्यवस्था भी की। उनके द्वारा स्थापित किया गया शासन प्रबन्ध उनके उत्तराधिकारियों के समय में भी चलता रहा। यद्यपि उन्होंने मौर्यों की शासन प्रणाली से मिलता-जुलता शासन प्रबन्ध अपनाया था, परन्तु जहाँ उन्होंने कर्मचारियों के नामों और पदों में परिवर्तन कर इसे एक नया रूप देने का कार्य किया है। चाहे कुछ भी हो, गुप्त शासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा का कल्याण करना था। गुप्त शासन व्यवस्था की मुख्य विशेषतायें निम्न प्रकार थीं:
1. केन्द्रीय शासन प्रबन्ध
(क) राजा:- राजा गुप्त साम्राज्य का मुखिया होता था। उसका पद पैतृक होता था। साधारणत: राजा का बड़ा पुत्र ही, उसकी मृत्यु के बाद राजा बनता था। परन्तु कभी-कभी बड़े पुत्र को छोड़कर अन्य योग्य पुत्र को भी उत्तराधिकारी चुन लिया जाता था। इलाहाबाद लेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त, प्रथम ने अपने पुत्र समुन्द्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था, यद्यपि वह उसका ज्येष्ठ पुत्र नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा के दैवी सिद्धान्त को मान्यता थी और लोग उसे देवता के समान समझते थे। गुप्त सम्राट “महाराजाधिराज”, “पृथ्वीपाल”, “परमेश्वर” “चक्रवर्ती” तथा “परम भागवत्” आदि उपाधियाँ धारण करते थे।
राज्य की राजनीतिक, सैनिक, प्रशासनिक तथा न्याय सम्बन्धी सभी शक्तियां राजा के हाथों में केन्द्रित थीं। उसे राज्य के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां करने का अधिकार था। वह जिसे चाहे पद से हटा सकता था। राज्य की सारी सेना उसके अधीन होती थी। राजा के मुख से निकला प्रत्येक शब्द कानून बन जाता था। वह अपने नाम के सिक्के भी चलाता था। यद्यपि राजा को अनेक शक्तियां और अधिकार प्राप्त थे परन्तु फिर भी वह निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी नहीं होता था। राजा अपनी शक्तियों का प्रयोग लोक कल्याण के लिए ही करता था।
(ख) मन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्:- राजा की शासन सम्बन्धी कार्यों में सहायता के लिए कई मन्त्रियों की नियुक्ति की जाती थी। प्रत्येक मंत्री के अधीन कई विभाग थे समुद्रगुप्त का मंत्री हरिसेन युद्ध-मंत्री शान्ति तथा राजमहल के मंत्री के रूप में कार्य करता था। प्रत्येक विभाग की अपनी अलग मोहर होती थी। मन्त्री का पद राजा की कृपा पर होता था। उच्चवर्गीय, न्यायप्रिय, ईमानदार तथा योग्य और विश्वासपात्र लोगों को ही मंत्री बनाया जाता था।
मन्त्रियों की सामूहिक सभा को मंत्रिपरिषद् कहा जाता था। राजा को महत्त्वपूर्ण मामलों में सलाह देना उसका कार्य था। इस परिषद् के निर्णय अमात्य द्वारा राजा के पास भेजे जाते थे। परन्तु राजा इसके निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था। मंत्रिपरिषद् को राजा की आज्ञा का पालन करना पड़ता था। राजा की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी को राजा के पद पर बिठाने का कार्य भी मंत्रिपरिषद् करती थी।
(ग) सामन्त :- गुप्त शासकों ने विजित प्रदेशों पर सीधा शासन करने का प्रयत्न नहीं किया था। उन्होंने अनेक राजाओं को “करद” बनाकर छोड़ दिया था। हालांकि इन सबकी स्थिति एक-सी नहीं थी। किसी पर केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण अधिक था तो किसी पर कम सामन्त आन्तरिक मामलों में स्वतंत्र थे परन्तु वे सम्राट की अधीनता स्वीकार करते, कर देते तथा विशेष अवसरों पर राजा के पास जाकर अभिवादन करते थे।
2. प्रान्तीय शासन प्रबन्ध:- प्रशासन की सुविधा के लिए गुप्त शासकों ने अपने साम्राज्य को कई प्रान्तों में बाँट रखा था, जिन्हें देश या मुक्ति कहा जाता था। गुप्त अभिलेखों में मालवा, सौराष्ट्र, मन्दसौर आदि प्रान्तों के नाम आते हैं। प्रान्तों का प्रबन्ध एक गवर्नर के अधीन होता था जिसे “उपारिक महाराज” कहा जाता था। वह राजा द्वारा नियुक्त किया जाता था और प्रायः वह राजकुमार ही होता था। वह अपने प्रान्त में राजा के समान कार्य करता था। उसके मुख्य कार्यों में प्रान्त में शान्ति स्थापना करना, राजा की आज्ञा का पालन करना तथा प्रजा की भलाई के कार्य करना था। केन्द्रीय प्रशासन की तरह प्रान्तीय प्रशासन में भी उपारिक की सहायता के लिए अनेक अधिकारी नियुक्त किये जाते थे।
3. विषय का शासन:- प्रत्येक प्रान्त को आगे विषय अथवा प्रदेश में बाँटा गया था, जिसे आज के जिले के बराबर समझा जा सकता है। विषय के मुखिया को विषयपति कहा जाता था जिसकी नियुक्ति उपारिक महाराज करता था। कई बार इसकी नियुक्ति सीधे राजा द्वारा भी की जाती थी। वे सीधे सम्राट के अधीन होते थे। प्रत्येक विषयपति अपने जिले में शान्ति तथा सुरक्षा के लिए जिम्मेदार था। उसकी सहायता के लिए एक परिषद् होती थी, जिसके सदस्यों में साहूकार, व्यापारी, शिल्पकार तथा लेखक होते थे। गुप्त शासन व्यवस्था में सत्ता का केन्द्रीयकरण नहीं था। विषय के प्रबन्ध में जनता का काफी हाथ था।
4. स्थानीय स्वशासन :- गुप्त शासकों ने विषय को कई नगरों में बाँट रखा था। नगर का प्रमुख अधिकारी पुरपाल या नगर रक्षक कहलाता था। उसकी मदद के लिए एक नगर सभा होती थी, जिसके सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते थे। नगरों में सफाई, पानी, अस्पतालों का प्रबन्ध इसके प्रमुख कार्य थे।
5. ग्राम का प्रबन्ध :- गुप्त प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। प्रत्येक ग्राम का मुखिया “ग्राम्येक” अथवा “ग्रामाध्यक्ष” कहलाता था। उसकी सहायता के लिए ग्राम पंचायत होती थी। ग्राम की रक्षा, झगड़ों को निपटाना तथा प्रजा के हित के कार्य करना उसके प्रमुख कार्य थे। सरकार की तरफ से स्थानीय स्वशासन में अधिक हस्तक्षेप नहीं किया जाता था।
6. वित्तीय शासन–प्रबन्ध :- अन्य प्रबन्धों की तरह गुप्त शासकों ने वित्त के महत्त्व को समझते उसकी और विशेष ध्यान दिया। गुप्तकाल में वित्त के अनेक साधन थे जो निम्न प्रकार थे-
(क) आय के साधन : गुप्तकालीन अभिलेखों में राज्य की आय के 18 साधनों का उल्लेख मिलता है। भूमिकर आय का मुख्य साधन था जो भूमि की उपजाऊ शक्ति के अनुसार लिया जाता। था। लोगों का मुख्य पेशा कृषि था। गुप्त शासकों ने एक अच्छी भूमि कर व्यवस्था लागू की भूमिकर उपज का 1/6, 1/8 से 1/12वां भाग लिया जाता था। यह अनाज या धन के रूप में अदा किया जा सकता था | प्राकृतिक आपत्ति या अकाल के समय राजा भूमिकर माफ भी कर देता था। (ख) अन्य आय के साधन:- भूमिकर के अलावा चुंगीकर तथा जुर्माने से भी राज्य को काफी आय प्राप्त होती थी। वन, चारागाहें, कारखाने तथा नमक की खानें उनसे भी राज्य को भारी मात्रा में आय होती थी। अधीन राज्यों से कर तथा विदेशी राजदूतों से राजा को दी जाने वाली भेटों से भी राज्य को धन प्राप्त होता था। देश में कृषि तथा व्यापार उन्नत होने की वजह से लोग समृद्ध तथा सुखी थे।
(ग) व्यय की मदें :- गुप्त शासक जनता से प्राप्त धन को व्यर्थ नहीं गँवाते थे। वे विलासी जीवन व्यतीत करने पर जनता के धन को खर्च नहीं करते थे। राज्य की आय का आधा भाग सैनिक कार्यों पर खर्च होता था। शेष आय में से मन्त्रियों तथा कर्मचारियों तथा राजमहलों पर खर्च किया जाता था। बाकी धन को प्रजा की भलाई के कामों पर खर्च किया जाता था। कृषि की उन्नति के लिए कुएं, नहरें, तालाब, तथा लोगों की सुविधा के लिए अस्पताल तथा शिक्षा संस्थाएं बनाई जाती जिन पर भी काफी धन खर्च किया जाता था। इनके अतिरिक्त साहित्य और कला के प्रोत्साहन के लिए भी धन व्यय किया जाता था।
7. न्याय व्यवस्था
(क) न्यायालय:- गुप्त सम्राट बड़े न्यायप्रिय थे। वे सबके साथ एक समान न्याय करते थे। उन्होंने राज्य की सभी इकाइयों में अनेक न्यायालय स्थापित किये। राजा का न्यायालय देश का सर्वोच्च न्यायालय होता था। राजा न्याय का मुख्य स्रोत था। प्रान्तीय तथा जिला केन्द्रों और बड़े-बड़े नगरों में भी न्यायाधीश होते थे। मुख्य न्यायाधीश को सर्व दण्डनायक कहा जाता था। उसके अधीन महादण्डनायक और दण्डनायक आदि अधिकारी कार्य करते थे। निम्न न्यायालयों की ऊपर के न्यायालयों में अपील की जा सकती थी। मुकदमों का फैसला प्रायः मनुस्मृति तथा हिन्दू रीति-रिवाजों के आधार पर किया जाता था।
(ख) दण्ड :- चीनी यात्री फाह्यान ने लिखा है कि अपराधियों को हल्के दण्ड दिए जाते थे। साधारण अपराधों के लिए जुर्माना किया जाता था। बार-बार अपराध करने वाले का दाहिने हाथ का अंगूठा काट दिया जाता था। उस समय मृत्यु दण्ड दिया ही नहीं जाता था। परन्तु इतिहासकार इस मत से सहमत नहीं हैं, उनके मत में डाकुओं, विद्रोहियों तथा हत्यारों को मृत्यु दण्ड दिया जाता था। गवाही अथवा सबूत के अभाव में अपराधी की अग्नि, जल तथा विष परीक्षा ली जाती थी। वास्तव में गुप्तकाल में अपराध कम होते थे, तथा सड़कें आदि सुरक्षित थीं।
8. सैनिक प्रबन्ध :- गुप्त सम्राट उच्च कोटि के योद्धा थे। उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार करने तथा बाह्य आक्रमणों से उसकी रक्षा करने के लिए एक विशाल सेना का गठन किया हुआ था। उन्होंने अपनी सेना को 6 अंगों में बाँटा हुआ था। ये अंग थे पैदल सैनिक, घुड़सवार सेना, रथ सेना, हाथियों की सेना, जल सेना तथा यातायात के साधनों की सेना। इसके अलावा सैनिकों के देख-भाल के लिए विभिन्न अधिकारी नियुक्त किए जाते थे, जिनमें महासेनापति, सेनापति, महाबलाधिकृत, बलाधिकृत, भट्टाश्वपति, कुटुक तथा बृहदश्वाल शामिल थे। शास्त्रों में तीरकमान, नेजे, भाले, तलवारों तथा ढालों और कुल्हाड़ों को प्रयोग में लाया जाता था। सैनिकों को वेतन नकद मिलता था। इसी सैनिक संगठन के आधार पर गुप्त सम्राटों ने शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण किया।
उपसंहार : उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि गुप्तकालीन शासन प्रबन्ध सुव्यवस्थित था। समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल तक तो केन्द्रीय सत्ता का मन्त्रिमण्डल तथा प्रान्तों पर पूरा नियंत्रण रहा, परन्तु बाद के शासकों के समय में सामन्तों और महासामन्तों का प्रभाव भी अधिक या जिस कारण केन्द्रीय सत्ता कमजोर पड़ने लगी और विभिन्न सामन्तों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। जिस कारण गुप्त साम्राज्य पतन की ओर चला गया।