History -इतिहास 3
अशोक के धम्म से आप क्या समझते हैं? इसके प्रचार के लिए उसने क्या प्रयास किये? (What do you understand by Ashoka’s Dhamma? Discuss the measures adopted by him for propagate it?) अथवा
अशोक के धम्म के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। इसका क्या ऐतिहासिक महत्त्व था ? (Describe the nature of the Ashoka’s Dhamma. What was its historical importance?) अथवा
अशोक के ‘‘पवित्रता के नियम” के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करें। अशोक ने इनका प्रचार कैसे किया ? (Discuss the main principles of Ashoka’s law of piety. How did he propagate it?) अथवा
अशोक के धम्म से आप क्या समझते हैं? उसने इनके प्रचार-प्रसार के लिए क्या कार्य किए?
(What do you know about Ashoka’s Dhamma? Discuss the measures he adopted for spreading it.)
उत्तर– अशोक के धम्म का अर्थ :- अशोक ने अपने अभिलेखों द्वारा प्रजा में कुछ नैतिक सिद्धान्तों का प्रचार किया जिन्हें सामूहिक रूप से ‘अशोक का धम्म अथवा धर्म’ कहा जाता है। अशोक के धर्म के सम्बन्ध में इतिहासकारों में काफी मतभेद हैं। फलीट के अनुसार, “अशोक का धर्म राजधर्म था और इससे राजा के कर्त्तव्यों का ज्ञान होता है।” परन्तु यह बात मान्य नहीं है, क्योंकि राजधर्म किसी राजा के लिए हो सकता है, प्रजा के लिए नहीं। भण्डारकर के अनुसार, “अशोक का धर्म बौद्ध धर्म था तथा उसने बौद्ध धर्म के उन्हीं सिद्धान्तों का प्रचार किया जो महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं को छोड़कर गृहस्थ उपासिकों के लिए बनाए थे। इस तरह अशोक के धम्म का स्रोत तथा आधार बौद्ध धर्म ही था।” प्रो. थोमस तथा मुकर्जी जैसे विद्वानों के कथनानुसार अशोक के धम्म में बौद्ध धर्म के मौलिक सिद्धान्तों : चार महान सत्य, अष्ट मार्ग, निर्वाण आदि सिद्धान्तों का उल्लेख नहीं मिलता। इसलिए जिस धर्म का प्रचार अशोक ने प्रजा में किया, वह निश्चय ही बौद्ध धर्म नहीं था; चाहे उसका व्यक्तिगत धर्म बौद्ध धर्म ही था। डॉ. बी. ए. स्मिथ के अनुसार “जिस धर्म का अशोक ने प्रचार किया, उसमें बौद्ध धर्म की बहुत ही कम बातें थीं और सारी ऐसी बातें सम्मिलित थीं जो दूसरे धर्मों से समान रूप में मिलती-जुलती थीं।”
एक इतिहासकार का विचार है कि “अशोक ने जिस धर्म का प्रचार अपने स्तम्भ लेखों में किया, वह बौद्ध धर्म नहीं था बल्कि एक ऐसा सादा धर्म था जिस पर अशोक सब धर्मों के अनुयायियों से पालन कराना चाहता था। शिलालेख 12 में अशोक के धम्म को, “सभी धर्मों का सार कहा गया है।” चाहे उसने बौद्ध धर्म तथा हिन्दू धर्म से सिद्धान्त लिए हों परन्तु संक्षिप्त में यह सम्राट की ओर से लोगों के लिए व्यावहारिक तथा सुविधापूर्ण जीवन बिताने के तरीके तथा नैतिकता का पालन करने का उपदेश दिया था।” कलिंग की विजय के उपरान्त अशोक महान ने दिग्विजय के मार्ग को त्याग कर धर्म विजय को अपना लिया था तथा अपनी शक्ति तथा ध्यान लोगों की भलाई के कार्य करने में लगा दी थी। अशोक केवल उनके वर्तमान जीवन को ही सुखी नहीं बनाना चाहता था बल्कि उनके आगामी जीवन को सुधारने का भी उत्सुक था। इस लक्ष्य ही उसने ‘धम्म’ की स्थापना की और लोगों को इसके सिद्धान्तों पर चलने का उपदेश दिया। आर. के. मुकर्जी के अनुसार, “इस तरह अशोक ने सर्वव्यापक धर्म की नींव डाली और इतिहास में ऐसा कार्य करने वाला शायद वह पहला व्यक्ति था।”
(क) अशोक के धम्म के मुख्य सिद्धान्त– अशोक के धम्म के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित थे :-
1. बड़ों का आदर:- अशोक के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उसके धर्म का मुख्य नियम था कि प्रत्येक व्यक्ति अपने से बड़ों का सम्मान करे तथा उनकी आज्ञा का पालन करे। पुत्र-पुत्रियों यह को अपने माता-पिता का आदर करना चाहिए तथा उनकी सेवा करनी चाहिए। इसी प्रकार शिष्यों को अपने गुरुओं का सम्मान करना चाहिए। इसके अलावा वृद्ध पुरुषों, ब्राह्मणों, ऋषियों, मित्र, सम्बन्धियों, राज्याधिकारियों तथा भिक्षुओं को भी आदर की दृष्टि से देखना चाहिए।
2. छोटों के प्रति प्रेमभाव:- अशोक के अनुसार जहाँ छोटों का कर्तव्य बनता है कि बड़ों का सम्मान करें, वहीं बड़ों का भी कर्तव्य बनता है कि वे छोटों के प्रति प्रेमभाव रखें। माता-पिता को अपने बच्चों से, गुरुओं को शिष्यों से, धनी को निर्धन से, राजा को प्रजा से तथा राज्याधिकारियों को प्रजाजनों से प्यार, सहानुभूति तथा दयालुता का व्यवहार करना चाहिए।
3. सत्य :– अशोक के धम्म के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। मनुष्यता का विकास केवल सत्यता से ही हो सकता है। मनुष्य को झूठ बोलने से घृणा करनी चाहिए।
4. दान:- अशोक ने दान देने पर जोर दिया। उसने आदेश दिया कि प्रत्येक मनुष्य को निर्धनों, साधु-सन्तों, ऋषियों, तपस्वियों तथा वृद्ध पुरुषों को दान देना चाहिए। शिलालेख में लिखा गया है कि धर्मदान सोने के दान से भी अधिक महत्त्व रखता है।
5. पाप रहित जीवन:- स्तम्भ लेख 111 में अशोक ने कहा कि प्रत्येक मनुष्य को पाप रहित जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे काम, क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या, अत्याचार आदि दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए क्योंकि यही संसार के सभी पापों की जड़ें हैं।
6. अहिंसा :- अहिंसा अशोक धर्म का एक मुख्य सिद्धान्त था। अशोक ने लोगों को आज्ञा दी कि वे किसी भी मनुष्य अथवा पशु को कष्ट न दें। उसने बताया कि जीव-जन्तुओं को भी जीवित रहने का पूरा अधिकार है। मनुष्य को उनके इस प्राकृतिक अधिकार पर डाका नहीं डालना चाहिए। अशोक ने वर्ष में 56 दिन ऐसे निश्चित किए जब किसी भी पशु का वध नहीं किया जा सकता था।
7. आत्म–परीक्षा :- अशोक ने अपने शिलालेखों में आत्म-परीक्षा के सिद्धान्त का प्रचार किया। उसका कहना था कि मनुष्य को समय-समय पर अपने अच्छे तथा बुरे कर्मों की परीक्षा करनी चाहिए। इससे उसको अपना आगामी जीवन सुधारने में सहायता मिलती है।
8. धार्मिक सहनशीलता:- धार्मिक सहनशीलता भी अशोक के धर्म का मूल मन्त्र थी। इसके अनुसार मनुष्य को सभी धर्मों का आदर करना चाहिए क्योंकि प्रत्येक धर्म में कोई-न-कोई अच्छाई अवश्य होती है। मनुष्य को चाहिए कि वह इस अच्छाई को अपनाने का प्रयास करे।
9. सच्चे रीति–रिवाज :- अशोक ने शिलालेख में समाज में प्रचलित झूठे रीति-रिवाजों, यात्रा सम्बन्धी झूठे विश्वासों का खण्डन किया। इनके स्थान पर उसने आदेश दिया कि मनुष्य को शुद्ध चरित्र रखना चाहिए तथा नैतिकता के नियमों का पालन करना चाहिए। सत्य बोलने, बड़ों का आदर करने, जीवों को कष्ट न देने तथा दान देने से बढ़कर कोई सत्य रीति-रिवाज नहीं है।
10. सेवा:- अशोक महान ने अपने धर्म में इस बात पर जोर दिया कि प्रत्येक व्यक्ति में सेवा-भाव होना चाहिए। राजा का कर्त्तव्य है कि वह प्रजा के लिए अधिक-से-अधिक जनहित कार्य करें। क्योंकि वह स्वयं कहा करता था कि मैं जनता के लिए कार्य करके इन पर ऋण चढ़ा रहा हूँ, जो मुझे अगले जन्म में मिलेगा। इसलिए पुत्रों तथा पुत्रियों का कर्तव्य है कि वे अपने माता-पिता की सेवा करें तथा शिष्यों का कर्तव्य है कि अपने गुरु की सेवा करें।
11. परलोक का सुधार :- अशोक के धर्म का उद्देश्य लोगों के आगामी जीवन को सुधारना था। उसने स्वयं शिलालेख में कहा है, ‘मेरे ये सारे प्रयत्न परलोक के लिए ही हैं’। वह इस बात में विश्वास करता था कि आत्मा अमर है और मनुष्य को आगामी जीवन उसके वर्तमान जीवन में किए गए कार्यों के अनुसार निश्चित होता है।
(ख) धर्म प्रचार के प्रयत्न– अशोक ने धर्म प्रचार का कार्य न केवल धर्म निष्ठा से किया बल्कि धर्मपरायणता से किया। धर्म का प्रचार करने के लिए निम्नलिखित कार्य किए :-
1. निजी आदर्श:- अशोक ने स्वयं अपने धर्म के सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप दिया और इस तरह उसने व्यक्तिगत उदाहरण लोगों के सामने रखा। उसने धार्मिक सहनशीलता का व्यवहार किया तथा मांस खाना, आखेट करना बन्द कर दिया। इसके अतिरिक्त उसने प्रजा के साथ दयालुता का व्यवहार किया तथा धर्म, दान की नीति को अपनाया। सम्राट अशोक के इस उच्च आदर्श को देखकर लोग भी इन सिद्धान्तों का पालन करने लगे।
2. धार्मिक यात्राएँ :- अशोक महान् ने अपने धर्म का प्रचार करने के लिए साम्राज्य के विभिन्न भागों में धर्म यात्राएँ कीं, जिससे समस्त देश में इस धर्म का प्रचार हुआ।
3. धर्म महामात्र:- अशोक महान् ने अपने धर्म का प्रचार करने के लिए धर्म महामात्रों की नियुक्ति की। इनका मुख्य कर्त्तव्य स्थान-स्थान पर जाकर न केवल धर्म का प्रचार करना था वरन् इस बात को देखना था कि लोग राजा के आदेशों को व्यावहारिक रूप में अपना रहे हैं अथवा नहीं। ये लोगों के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करते थे।
4. शिलालेख:- अशोक ने अपने धर्म के सिद्धान्तों को स्तम्भों तथा शिलाओं पर खुदवा दिया। ये स्तम्भ तथा शिलालेख देश के विभिन्न भागों में स्थापित किए गए ताकि प्रजा इन्हें पढ़कर धर्म के सिद्धान्तों को समझ सके तथा उनका अनुकरण कर सके।
5. सरकारी अधिकारियों को आदेश :- अशोक ने इस धर्म के प्रचार के लिए सरकारी अधिकारियों की भी सेवाएं प्राप्त कीं। युक्त राजुक, तथा प्रादेशिक आदि अधिकारियों को पाँच या तीन वर्ष में एक बार धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करने का आदेश दिया जाता था।
6. विदेशों में प्रचारक :- अशोक ने अपने धर्म का प्रचार करने के लिए विदेशों में प्रचारक भेजे जिनसे यह धर्म देश-विदेश में फैल गया।
(ग) अशोक के धम्म का महत्त्व –
1. दिग्विजयी के स्थान धर्म विजयी बन गया:- अशोक का धर्म भारत के इतिहास में महत्त्व रखता है। अशोक विश्व के इतिहास में एक ऐसा सम्राट था जिसने अपने प्रजा के आगामी बहुत जीवन को सुधारने के प्रयास किए। कलिंग के युद्ध के उपरान्त उसने दिग्विजय को पूर्णतः त्याग कर धर्म विजय के मार्ग को अपनाया और सारा जीवन धर्म के प्रचार में ही लगा दिया। उसने दूर-दूर तक अपना राज्य फैलाने की अपेक्षा धर्म के सिद्धान्तों को दूर-दूर तक पहुँचाने का प्रयत्न किया।
2. लोगों का पुण्यमय जीवन :- अशोक प्रजा के लिए प्रकाश स्तम्भ बन गया था। उसने जनता के चक्कर को धर्म का वास्तविक मार्ग बताया। उसने लोगों को समझाया कि व्यर्थ के रीति-रिवाजों तथा कर्मकाण्डों के चक्कर में न पड़ें। आत्मा और परमात्मा क्या है, इन जटिल प्रश्नों की उपेक्षा का उपदेश दिया तथा लोगों को नैतिकता के सिद्धान्तों का पालन करने की शिक्षा दी। उनका विचार था कि पवित्र जीवन ही सभी धर्मों का निचोड़ है। इसके परिणामस्वरूप लोगों के चरित्र शुद्ध हो गए तभी उन्होंने पाप के मार्ग को त्यागकर पुण्यमय जीवन का मार्ग पकड़ लिया।
3. एकता की भावना :– अशोक के धर्म का यह प्रभाव पड़ा कि लोगों में पारस्परिक भेद-भाव दूर हो गया तथा एकता की भावना को प्रोत्साहन मिला। इस धर्म का यह सिद्धान्त था कि सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए तथा किसी धर्म से घृणा नहीं करनी चाहिए। इस तरह बौद्ध, जैन, हिन्दू-तीनों धर्मों के लोग एक-दूसरे से मिल-जुल कर रहने लगे।
4. अपराधों की कमी:- इस धर्म का एक अन्य प्रभाव पड़ा कि इससे साम्राज्य में अपराध कम हो गये। लोगों को आदेश दिया गया कि वे सरकारी कर्मचारियों का सम्मान करें और शुद्ध तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। बहुत से लोगों ने इस धर्म को व्यावहारिक रूप दिया जिसके परिणामस्वरूप राज्य में दोष तथा अपराध कम हो गए तथा सारे साम्राज्य में शान्ति व्यवस्था की स्थापना हो गई।
5. लोक सेवा कार्य :- अशोक के धर्म के कारण लोक सेवा के कार्यों में वृद्धि हुई। अशोक ने राज्य के सभी अधिकारियों को आदेश दिए कि वे प्रजा से नम्रता और दयालुता का वर्ताव करें। इस धम्म के कारण सरकारी कर्मचारी बड़े उत्साह तथा लग्न से लोकहित कार्य करने लगे जिससे प्रजा को सुख, शान्ति तथा समृद्धि प्राप्त हुई।
6. अशोक का सर्वप्रिय होना :- अशोक के धर्म ने उसे प्रजा में सर्वप्रिय बना दिया। अशोक स्वयं अपने धर्म के सिद्धान्तों की पालना करता था। वह प्रजा को अपनी सन्तान समझता था तथा प्रजा उसे पिता का आदर देती थी। इसी कारण उसे प्रियदर्शी तथा देवानामप्रिय के नाम से पुकारा जाता था।
7. विदेशों से सम्बन्ध :- अशोक ने अपने धर्म का प्रचार दूसरे देशों में भी किया। लंका, जावा, सुमात्रा इत्यादि देशों में अनेक प्रचारकों को भेजा गया जिसके परिणामस्वरूप भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का दूसरे देशों में विकास हुआ और विदेशों से संबंध भी सुदृढ़ हुए।
8. सैनिक शक्ति का कमजोर होना:- अशोक द्वारा अहिंसा नीति अपनाने से मौर्यों की सैन्य शक्ति निर्बल हो गई। युद्ध न करने से सैनिक निर्बल तथा विलासी हो गए जिसका परिणाम यह हुआ कि अशोक के बाद उसके उत्तराधिकारी विदेशियों का मुकाबला न कर सके और मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।
निष्कर्ष :- उपरोक्त वर्णित अशोक के धर्म से स्पष्ट है कि अशोक ने इस नीति द्वारा लोगों के दिलों पर विजय प्राप्त की और वह भारतीय इतिहास में एक महान् सम्राट् के नाम से प्रसिद्ध हुआ।