History -इतिहास 12
प्रश्न– मौर्य के शासन प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।(Discuss the main features of the administration of Chandragupta Mourya.) अथवा
मौयों के असैनिक तथा सैनिक शासन प्रबन्ध पर एक नोट लिखिये। (Write a note on the civil and military administration of the Mauryans.) अथवा
चन्द्रगुप्त मौर्य के नागरिक और सैनिक शासन प्रबन्ध का वर्णन करो। (Explain the civil and military administration of Chandra Gupta Mauryans.) अथवा
मौर्यकालीन शासन प्रबंध की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना करो। (Explain the Salient features of the Mauryans administration.) अथवा
मौर्य शासकों के अधीन नागरिक और सैनिक प्रशासन का वर्णन करें। (Discuss the civil and military administration under Mauryan Empires.)
उत्तर–भूमिका:- मौर्य साम्राज्य का संस्थापवक चन्द्रगुप्त मौर्य था। उसने न केवल सम्पूर्ण भारत में राजनीतिक एकता स्थापित की बल्कि उच्च कोटि का शासन प्रबंध भी स्थापित किया। उसका प्रशासन केन्द्र, प्रान्तों, जिलों तथा गांवों में विभाजित था। उसके पश्चात् अशोक ने चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित शासन प्रबंध में अनेक सुधार किए। उसका प्रशासन प्रजा हित पर आधारित था। डॉ. वी. ए. स्मिव ने लिखा है कि, “मौर्य साम्राज्य अकबर के अधीन मुगल साम्राज्य से कहीं अच्छी तरह से संगठित था।” मौर्य शासन-प्रबन्ध में नागरिक और सैनिक प्रशासन की मुख्य विशेषतायें निम्न प्रकार थीं:
(क) नागरिक प्रशासन– 1. केन्द्रीय शासन मौर्य प्रशासन में केन्द्रीय शासन को चलाने के लिए राजा अनेक मंत्रियों अर्थात् मन्त्रिपरिषद् तथा अन्य उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करते थे। केंद्रीय शासन की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं-
(अ) राजा:- मौर्य साम्राज्य में नागरिक प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी स्वयं राजा होता था। उसकी शक्तियाँ और अधिकार असीमित थे। वह स्वयं कानून बनाता और उन्हें लागू करवाता था । उसके बनाये गये कानूनों को कोई भंग नहीं कर सकता था, अगर कोई ऐसा करता तो उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। वह राज्य के उच्चाधिकारियों जैसे- मन्त्रियों, पुरोहितों, गुप्तचरों, राजदूतों तथा अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति भी करता था। वह जिसे चाहे सरकारी पद से हटा सकता था। वैसे भी, राजा के तीन मुख्य कार्य थे- (1) शासन सम्बन्धी, (2) न्याय सम्बन्धी तथा (3) सेना सम्बन्धी । साम्राज्य के आय-व्यय का ब्यौरा उसके सामने रखा जाता था। वह उसी के अनुसार अपनी आर्थिक बनाता था। कुल मिलाकर साम्राज्य का कोई भी विभाग ऐसा नहीं था जिस पर राजा का नियंत्रण न हो। वह शासन के मामले में मन्त्रियों की सलाह अवश्य लेता था परन्तु करता अपनी मर्जी वह अपनी सेना का सर्वोच्च सेनापति होता था और युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करता था। इसके अलावा न्याय का मुख्य स्रोत सम्राट ही था। देखने में राजा की शक्तियां निरंकुश थीं, परंतु वास्तव में वह निरंकुश नहीं था। चंद्रगुप्त मौर्य तथा अशोक जैसे सम्राट् रात दिन प्रजा की भलाई में लीन रहते थे।
मैगस्वनीज लिखता है कि चन्द्रगुप्त बड़े ठाठ से पाटलिपुत्र सुन्दर महल में रहता था, जिसके के स्तम्भों पर सोने-चाँदी की बेलें थीं। वह सोने की पालकी में बैठकर लोगों को दर्शन देता था। विशेष अवसरों पर चन्द्रगुप्त को 24 हाथियों की सलामी दी जाती थी। “चन्द्रगुप्त निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी शासक नहीं था बल्कि सदैव प्रजा की भलाई के ध्यान में लगा रहता था।”
(ब) मन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् : चन्द्रगुप्त ने अपने प्रशासन को कुशलतापूर्वक चलाने के लिए। एक मन्त्रिपरिषद् का गठन कर रखा था, जो शासन के कार्यों में राजा की सहायता करती थी। कौटिल्य के अनुसार मंत्रिपरिषद् सदस्य कम से कम 12 और अधिक से अधिक 20 होते थे। प्रत्येक सदस्य को 12,000 पण प्रति वर्ष वेतन मिलता था। परिषद् के सदस्य को “अमात्य” कहते थे मन्त्रिपरिषद् की बैठकें आवश्यक कार्यों के लिए ही बुलाई जाती थीं। हालांकि राजा मंत्रिपरिषद् के निर्णयों को मानने के लिए बाध्य नहीं था। इसके अतिरिक्त दैनिक कार्यों को चलाने के लिए विशेष मन्त्री नियुक्त किये जाते थे। मन्त्रिपरिषद् का मुखिया कौटिल्य था। कुछ प्रसिद्ध मन्त्री तथा उनके कार्य इस प्रकार थे-
(i) प्रधानमन्त्री:- राजा के बाद केंद्रीय प्रशासन में दूसरा ‘प्रधानमंत्री’ का था, जो शासन के प्रत्येक कार्य में राजा को सलाह दिया करता था। चन्द्रगुप्त का प्रधानमन्त्री कौटिल्य था।
(ii) पुरोहित:- पुरोहित धार्मिक कार्यों का मन्त्री होता था।
(iii) सेनापति:- यह साम्राज्य की सेना का मुखिया होता था। कौटिल्य के अनुसार सेनापति युद्ध – विद्या तथा अस्त्र-शस्त्र में निपुण होना चाहिए। यह युद्ध तथा सन्धि के मामलों पर राजा को परामर्श देता था।
(iv) समाहर्ता:- समाहर्ता देश का विदेशमन्त्री होता था। इसका मुख्य कार्य आय-व्यय का हिसाब रखना था तथा करों को एकत्र करवाना था।
(v) सन्निधाता:- सन्निधाता राज्य का कोषमन्त्री था। इसका मुख्य कार्य शाही गोदामों, जेलों तथा शस्त्रालय की देखभाल करना था।
(vi) दौवारिक:- दौवारिक राजमहल के कार्यों का मन्त्री था।
(vii) कार्मान्तिक:- कार्मान्तिक कारखानों तथा खानों का मन्त्री था।
(viii) अन्तपाल:- अन्तपाल सीमान्त प्रदेशों के दुर्गों की रक्षा का कार्य करता था।
(ix) दुर्गपाल:- दुर्गपाल देश के भीतरी भागों में स्थित दुर्गों की रक्षा का कार्य करता था।
(x) दण्डपाल:- दण्डपाल पुलिस का सबसे बड़ा अधिकारी था।
(xi) अन्य अधिकारी:- मन्त्रियों के अलावा मौर्य साम्राज्य में बहुत से निम्न कोटि के राज्य अधिकारी भी होते थे जो ‘आमात्य’, ‘महापात्र’, अध्यक्ष आदि कहलाते थे। स्ट्राबों ने इन्हें मजिस्ट्रेटों का नाम दिया है। अर्थशास्त्र में 26 प्रकार अध्यक्षों तथा उनके कार्यों का विवरण है। अशोक के समय में भी राजुक, प्रादेशिक और युक्त आदि कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती थी।
2. प्रान्तीय शासन :- चन्द्रगुप्त का साम्राज्य बहुत विस्तृत था। शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसने सारे साम्राज्य को चार बड़े प्रान्तों में बाँटा हुआ था। मगध को छोड़कर, जिसका शासन-प्रबन्ध प्रत्यक्ष रूप से सम्राट के अधीन था, शेष तीन अन्य प्रान्त थे –
(i) पूर्वी प्रान्त:- इसमें मध्य भारत का प्रदेश शामिल था, जिसे मगध प्रान्त भी कहा गया था। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इसका शासन-प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से सम्राट स्वयं करता था।
(ii) उत्तरी–पश्चिमी प्रान्त:- इस प्रान्त में अफगानिस्तान, बलोचिस्तान, पंजाब तथा सिन्ध के प्रदेश शामिल थे। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
(iii) पश्चिमी प्रान्त:- इसमें मालवा, गुजरात तथा कठियावाड़ के प्रदेश थे। इसकी राजधानी उज्जैन थी।
(iv) दक्षिणी प्रान्त :- इसमें विन्ध्याचल से लेकर मैसूर तक के प्रदेश सम्मिलित थे। इसकी राजधानी सुवर्णगिरी थी। अशोक के शासन काल में इन प्रान्तों के अतिरिक्त एक अन्य कलिंग नामक प्रान्त बनाया गया था, जिसकी राजधानी तोशाली थी। प्रत्येक प्रान्त एक गवर्नर के अधीन होता था, जिसे ‘कुमार’ कहा जाता था।
3. जिला प्रबंध :- चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने शासन-प्रबंध में अधिक कुशलता लाने के लिए प्रान्तों को जिलों में बाँटा हुआ था, जिसमें आजकल की तरह अधिकारी और कर्मचारी होते थे।
(a) नगर अध्यक्ष : प्रत्येक प्रान्त में कई प्रदेश अथवा जिले हुआ करते थे। जिले के मुखिया को “नगर अध्यक्ष” अथवा “प्रादेशिक” कहा जाता था। ऐसा लगता है कि आजकल के डी. सी. की तरह प्रादेशिक भी बहुत से कार्य करता था। जिले में शान्ति स्थापित रखना, भूमि-कर तथा अन्य कर एकत्रित करना, शिक्षा का प्रबन्ध करना, कृषि एवं सिंचाई के प्रबन्ध की देखभाल करना, जंगलों तथा खानों का प्रबन्ध करना आदि उसके अनेक प्रकार के कार्य होते थे। उसकी सहायता के लिए अनेक अधिकारी नियुक्त किए जाते थे।
(b) परिषद् की छः समितियाँ:- नगर अध्यक्ष के अलावा पाटलिपुत्र, तक्षशिला तथा उज्जैन आदि बड़े-बड़े नगरों में आजकल की म्युनिसिपल कमेटियों की तरह परिषदें भी हुआ करती थीं। मैगस्थनीज के अनुसार प्रत्येक परिषद् में प्रायः 30 सदस्य होते थे। इन तीस सदस्यों को आगे पाँच-पाँच सदस्यों की छः समितियों में बाँटा गया था। ये छः समितियाँ नगर विभिन्न भागों का प्रबन्ध करती थीं। इनका कार्य निम्न प्रकार था –
(i) शिल्पकला समिति : यह समिति कला-कौशल की देखभाल करती थी। शिल्पकारों के वेतन नियत करना तथा उनके हितों की रक्षा करना इस समिति के प्रमुख कार्य थे। यदि कोई व्यक्ति किसी शिल्पकार को उसके हाथों या आँखों से वंचित करके उसे काम करने के असमर्थ बना देता तो ऐसे व्यक्ति को मृत्यु-दण्ड दिया जाता था।
(ii) विदेश विभाग समिति:- इस समिति का कार्य विदेश से आने वाले यात्रियों के ठहरने, खाने-पीने तथा उनके लिए उचित चिकित्सा का प्रबन्ध करना था। अगर कोई विदेशी मौर्य साम्राज्य में मर जाता तो उसके शरीर को जलाना या दफनाना भी इस समिति का ही दायित्व था। उसके घर सूचना भेजना और उसके सामान को उसके घर पहुँचाना, इसी समिति का कार्य था।
(iii) जनगणना समिति:- इस समिति का काम नगर में जन्म-मरण का ब्यौरा रखना था। प्राचीन काल में ऐसे ब्यौरे का होना अवश्य ही आश्चर्यजनक बात थी।
(iv) व्यापार समिति:- यह समिति व्यापार की देखभाल करती थी। यह दुकानदारों के तील के बट्टों तथा मापने के पैमानों की जाँच-पड़ताल करती थी। यह व्यापारियों की शिकायतों को भी सुनती थी।
(v) उद्योग समिति:- इसका कार्य कारखानों तथा घरों में तैयार की गई वस्तुओं का निरीक्षण करना था। पुरानी तथा नई वस्तुओं को अलग-अलग रखा जाता था और उनका मिश्रण नहीं किया जा सकता था। ऐसा करने पर जुर्माना किया जाता था।
(vi) कर समिति:- यह वस्तुओं की बिक्री पर कर लगाती और उसे एकत्रित करती थी। यह कर वस्तुओं के मूल्य के दस प्रतिशत के हिसाब से लिया जाता था। कर न देने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था।
इन समितियों के अतिरिक्त कौटिल्य ने लिखा है कि नगर अध्यक्ष के अधीन “स्थानिक” तथा “गोप” नामक कर्मचारी कार्य करते थे। प्रत्येक स्थानिक नगर के चौथाई भाग की तथा गोप पाँच से लेकर दस गाँवों की देख-रेख करता था।
4. ग्राम प्रबन्ध:- चन्द्रगुप्त के शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी, जिसका मुखिया ग्रामीणी तथा ग्रामिक होता था। इसकी सहायता के लिए पंचायत होती थी। ग्रामिक तथा पंचायत मिलकर गाँव में शासन तथा न्याय सम्बन्धी कार्य करते थे। उन्हें केन्द्र सरकार की ओर से कोई वेतन नहीं मिलता था और न ही केन्द्र सरकार इनके कार्यों में हस्तक्षेप करती थी। प्रत्येक ग्राम में एक राजा का भी कर्मचारी होता था जो “ग्राम भोजक” कहलाता था। परन्तु गाँव के शासन की देखभाल के लिए गोप नामक कर्मचारी नियुक्त किये गये थे। प्रत्येक गोप के अधीन पाँच से दस ग्राम होते थे। गोप के ऊपर स्थानिक होता था। उसके अधीन आठ सौ गाँव होते थे। डॉ. आर. के. मुकर्जी के शब्दों में, “ग्राम-समुदाय एक गणतन्त्र की तरह कार्य करता था। इस प्रकार उस समय का भारतीय प्रशासन वस्तुतः प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों पर आधारित था।”
5. वित्त का प्रबंध :- चन्द्रगुप्त मौर्य ने कौटिल्य के सिद्धान्त को मानते हुए कि, “सभी कार्य वित्त पर निर्भर हैं,” अर्थ-व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया। उसने अर्थ विभाग का एक मन्त्री नियुक्त किया जिसे “समाहर्ता” कहते थे। उसके अधीन कई अध्यक्ष थे, जो अपने-अपने विभाग का कर इकट्ठा करते थे।
(i) भूमि कर:- भूमि कर साम्राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। यह भूमि कर दो प्रकार का होता था: प्रथम, जो राज्य के अधिकार में था तथा दूसरा, जो किसानों के अधिकार में था। प्रथम प्रकार से जो आय होती थी उसे सीता कहते थे। दूसरा, जो किसानों से कर प्राप्त होता था उसे भाग कहते थे। भाग अथवा भूमिकर उपज का 1/6 या 1/4 होता था। अकाल या महामारी के समय किसानों के कर माफ कर दिये जाते थे और सरकार की ओर से हर प्रकार की सहायता दी जाती थी।
(ii) आय के अन्य साधन:- भूमि कर के अलावा राज्य की आय के कुछ और साधन भी थे। जैसे फूल-फल और तरकारियों पर कर, वनों से प्राप्त आय, सिंचाई कर चुंगीकर, शराब निकालने पर कर, नमक बनाने पर कर, व्यवसायों पर कर, अपराधियों से प्राप्त जुर्माना, राजकीय व्यापार, टकसाल और खानों से प्राप्त आय, अधिक आय पर कर, सम्राट को भेंट किए उपहार तथा स्वामीहीन सम्पत्ति आदि पर लगाये गये कर राज्य की आय में आते थे।
(iii) व्यय की मदें :- व्यय भी निम्न कार्यों पर होता था। राजा के ठाट-बाट, उसके दरबार और परिवार का खर्च, मन्त्रियों तथा कर्मचारियों के वेतन, सैनिकों के वेतन, शस्त्रों और दुर्गों का निर्माण, विद्वानों, अनाथों, रोगियों और अपाहिजों को राज्य की ओर से सहायता इत्यादि पर खर्च किया जाता था। धार्मिक संस्थाओं को अनुदान, मृतक सैनिकों तथा कर्मचारियों के परिवारों को दी गई राशि, बेकार तथा निर्धन लोगों की सहायता, भवनों, सड़कों तथा हस्पतालों का निर्माण आदि पर भी काफी धन खर्च किया जाता था।
6. न्याय प्रबंध :- चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में न्याय व्यवस्था बहुत अच्छी थी। सर्वोच्च न्यायालय के अधीन अनेक छोटे न्यायालय कार्य करते थे। इनका वर्णन इस प्रकार है
(i) सम्राट–न्याय का स्रोत:- सम्राट चन्द्रगुप्त न्याय का प्रमुख स्रोत था। वह स्वयं राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश था। वह सब बड़े-बड़े मुकद्दमों का निर्णय करता था। इसके अलावा वह निचले न्यायालयों की अपीलें भी सुनता था। उसका फैसला अन्तिम होता था। सप्ताह में एक दिन न्याय के लिए निश्चित होता था। कई बार न्याय करने में पूरा दिन लग जाता था। सम्राट को किसी भी अपराधी को कठोर दण्ड देने और क्षमा करने का पूरा अधिकार था।
(ii) अन्य न्यायालय :- राजा के न्यायालय के अतिरिक्त साम्राज्य के विभिन्न भागों में न्यायालय स्थापित किये गये थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि दो गाँवों के न्यायालय को जनपद सन्धि कहा जाता था। आठ गाँवों के न्यायालय को द्रौणमुख तथा आठ सौ गाँवों के न्यायालय को स्थानीय न्यायालय कहा जाता था। न्यायाधीशों को रजुक तथा महामात्र भी कहा जाता था। न्यायालय दो प्रकार के होते थे। दीवानी मामलों से सम्बन्धित न्यायालय को ‘धर्मस्थ’ तथा फौजदारी मामलों से सम्बन्धित न्यायालयों को ‘कण्टक शोधन’ कहा जाता था।
(iii) कानून तथा दण्ड :- मुकद्दमों का निर्णय प्राचीन लिखित कानूनों द्वारा किया जाता था। चन्द्रगुप्त मौर्य का दण्ड विधान काफी कठोर था। छोटे अपराधों के लिए तो जुर्माना किया जाता था। झूठी गवाही देने, कर न देने, शिल्पकार को अंगहीन करने, चोरी-डाके आदि के अपराधों में मृत्यु दण्ड दिया जाता था अथवा शरीर का कोई अंग काट दिया जाता था। ब्राह्मण अपराधी को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था। परन्तु उन्हें भारी जुर्माना किया जाता था। अपराधियों को कठोर दण्ड देने के कारण अपराध बहुत कम होते थे और साम्राज्य में सुरक्षा और शान्ति स्थापित थी। मैगस्थनीज ने लिखा है कि, “पाटलिपुत्र में, जिसकी जनसंख्या चार लाख थी, कभी भी किसी एक दिन में आठ पौंड से अधिक की चोरी नहीं हुई। “
7. गुप्तचर विभाग : चन्द्रगुप्त ने गुप्तचर विभाग के महत्त्व को समझते हुए, अपने साम्राज्य गुप्तचरों का जाल बिछा रखा था। प्रत्येक विभाग में गुप्तचर नियुक्त किए जाते थे। ऐसा मालूम होता है कि मौर्य सम्राट ने स्त्री और पुरुष दोनों को ही गुप्तचर के पदों पर नियुक्त कर रखा था। साम्राज्य में होने वाली प्रत्येक घटना का लिखित विवरण राजा को देते थे। मैगस्थनीज के अनुसार, चन्द्रगुप्त के गुप्तचर ईमानदार तथा योग्य थे। कुशल गुप्तचर प्रणाली के कारण ही इतने बड़े विशाल राज्य में सफलतापूर्वक शासन चलाया जा सका।”
8. सार्वजनिक कार्य:- चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने समय में जन-उपयोगी सार्वजनिक कार्यों की ओर भी विशेष ध्यान दिया। जैसे :-
(i) सड़कें:- चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने विशाल साम्राज्य में यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कों की उचित व्यवस्था की। उसने सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवाए। इसके अलावा उसने दूरी जानने के लिए मील पत्थर लगवाए तथा आधा-आधा कोस की दूरी पर कुएं खुदवाए गए। उसकी सबसे लम्बी सड़क पाटलिपुत्र से तक्षशिला तक की थी, जिसकी लम्बाई 10,000 स्टेडिया थी। सड़कों के निर्माण से यातायात सरल हो गया और व्यापार तथा वाणिज्य में वृद्धि हुई।
(ii) नहरें तथा सुदर्शन झील :- सड़कों के अलावा चन्द्रगुप्त ने सिंचाई के लिए अनेक नहीं खुदवाई। उसने एक सिंचाई विभाग भी स्थापित किया। सिंचाई की सुविधा के बदले किसानों को सिंचाई कर देना पड़ता था। रूद्रदामन के जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने अपने पश्चिमी प्रान्त के गवर्नर पुष्पगुप्त की सहायता से सौराष्ट्र में सुदर्शन झील का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त ने स्वास्थ्य तथा स्वच्छता के लिए अनेक औषधालय खुलवाये तथा उनमें औषधि तथा योग्य वैद्य और चिकित्सक रखे।
(ख) सैनिक प्रबन्ध:- चन्द्रगुप्त मौर्य एक कुशल शासन प्रबन्धक होने के साथ-साथ एक विजेता भी था। इसलिए उसने अपने साम्राज्य में एक कुशल सैनिक प्रबन्ध की व्यवस्था की। उसके समय में सैनिक प्रबन्ध इस प्रकार से था :
1. विशाल तथा शक्तिशाली सेना:- चन्द्रगुप्त मौर्य का सैनिक प्रबन्ध भी सिविल शासन-प्रबन्ध की तरह कुशल था। उसने एक विशाल तथा शक्तिशाली संगठित सेना का गठन किया। सम्राट अपनी सेना का स्वयं प्रधान सेनापति होता था और युद्ध का संचालन भी स्वयं ही करता था। उसकी सेना में 6 लाख पैदल सैनिक, 30 हजार घुड़सवार, 9 हजार हाथी और 8 हजार रथ थे। इस प्रकार सैनिकों की कुल संख्या 6 लाख 90 हजार थी। सारी सेना प्रत्यक्ष रूप से राजा के अधीन थी। सैनिकों को राज्य की ओर से वेतन मिलता था। डॉ. वी ए. स्मिथ ने चन्द्रगुप्त के सैनिक संगठन की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल स्थायी सेना की व्यवस्था की थी, जिसे सीधे राजकोष से वेतन मिलता था और जो अकबर की सेना से भी सुयोग्य थी। “
2. सैनिक प्रबन्ध की छः समितियां:- मैगस्थनीज के अनुसार सेना का प्रबन्ध करने के लिए परिषद् का निर्माण किया गया। जिसके सदस्यों की संख्या 30 थी। ये सदस्य छः समितियों में विभाजित थे। ये समितियां सेना के विभिन्न भागों का प्रबन्ध करती थीं:-
(क) पहली समिति पैदल सेना:- यह समिति सेना के सबसे मुख्य भाग पैदल सैनिकों का प्रबन्ध करती थी।
(ख) दूसरी समिति अश्वारोही:- यह घुड़सवार सेना का प्रबन्ध करती थी। घोड़ों को युद्ध के लिए तैयार करना तथा उनके चारे तथा अस्तबल का प्रबन्ध इसका मुख्य कार्य था।
(ग) तीसरी समिति हाथी सेना:- यह समिति युद्ध के लिए हाथियों का प्रबन्ध करती थी। उन्हें विशेष जंगलों में रखा जाता था और उन्हें सैनिकों के साथ खड़ा होने, छलांग लगाने, दूसरे हाथियों से लड़ने, किलों तथा नगरों को नष्ट करने के ढंग सिखाये जाते थे।
(घ) चौथी समिति रथ सेना:- यह समिति युद्ध के लिए रथों का प्रबन्ध करती थी। प्रत्येक रथ पर तीन-तीन सैनिक होते थे।
(ङ) पाँचवीं समिति जल सेना:- यह समिति नौ सेना का प्रबन्ध करती थी। इसका कार्य जहाजों तथा नौकाओं का निर्माण करवाना तथा सैनिकों को समुद्री डाकुओं से लड़ने की शिक्षा देना था।
(च) छटी समिति सैनिक यातायात:- यह समिति सेना के साधनों का प्रबन्ध करती थी। यह बैलगाड़ियों से सैनिकों को रसद सामग्री, हथियार तथा पशुओं के लिए चारा युद्ध के स्थान पर पहुँचाने का प्रबन्ध करती थी।
कौटिल्य लिखता है कि आज की तरह उस काल में सेना के साथ वैद्यों को औषधियों सहित भेजा जाता था। डॉ. आर. के. मुकर्जी के शब्दों में, “उस काल में आधुनिक रैडक्रास सोसाइटी का सा काम होना निश्चय ही एक अत्यन्त सराहनीय बात थी।”
3. सैनिकों का वेतन :- सेना का मुख्य सेनापति राजा होता था। सेनापति को 48 हजार पण वार्षिक वेतन दिया जाता था। सेनापति के अधीन प्रशास्ता को 24 हजार, नायक को 12 हजार और मुखिया को 8 हजार पण वार्षिक वेतन दिया जाता था। अध्यक्षकों को 4 हजार पण वार्षिक वेतन मिलता था।
4. युद्ध सामग्री:- यूनानी लेखकों ने चन्द्रगुप्त मौर्य के सैनिकों के शस्त्रों के बारे में लिखा है कि प्रत्येक सैनिक को एक धनुष दिया जाता था, जिसकी लम्बाई सैनिक के बराबर होती थी। उसके पास धनुष के अलावा मुख्य हथियार तलवार, ढाल, भाला, तीर-कमान तथा लोहे का टोप होता था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कई अन्य शस्त्रों तथा यन्त्रों का वर्णन किया है। उनमें चक्र, त्रिशूल, मुगदर, गदा, तीन प्रकार की तलवारें, कवच आदि महत्त्वपूर्ण थे। उसने लिखा है कि उस समय अचल मशीनों का भी प्रयोग होता था।
5. पुरस्कार :- चन्द्रगुप्त मौर्य ने सैनिकों का उत्साह तथा धैर्य बढ़ाने के लिए पुरस्कार पद्धति का आरम्भ किया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अध्ययन से पता चलता है कि शत्रुओं के राजा का वध करने के एक लाख पण, उसके सेनापति का वध करने के 50 हजार पण, उसके हाथियों तथा रथों की टुकड़ी के अध्यक्ष का वध करने पर एक हजार पण, पैदल सेना के अध्यक्ष का वध करने पर एक हजार पण और उसके किसी सैनिक का सिर काट के लाने पर 20 पण पुरस्कार के रूप में दिए जाते थे।
6. किलों का निर्माण :- चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य में किलों के निर्माण पर भी विशेष ध्यान दे रखा था। थामस के अनुसार, “दुर्ग निर्माण की कला विकसित थी, उस समय के किले बहुत मजबूत थे और उनका निर्माण नियमानुसार खाइयों, ऊँची-ऊँची दीवारों तथा फाटकों सहित किया जाता था। “
निष्कर्ष :- उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का नागरिक और सैनिक शासन-प्रबन्ध अति उत्तम था। इसके समय में प्रजा सुखी थी और साम्राज्य में कहीं भी कोई विद्रोह नहीं होता था। चाहे मौर्य वंश का महान शासक अशोक था, परन्तु निःसन्देह उसकी महानता का श्रेय काफी सीमा तक उसके दादा चन्द्रगुप्त को ही प्राप्त है। अतः चन्द्रगुप्त को अशोक का अग्रसर कहना उचित होगा।