History -इतिहास 10
प्रश्न – भक्ति आन्दोलन के मुख्य सिद्धान्तों और प्रभा Discuss the main principles and effects of the Bhakti Movement)
अथवा
भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं? भक्ति आंदोलन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(What do you mean by Bhakti Movement? Discuss the salient features of the Bhakti Movements.)
अथवा
भक्ति आन्दोलन की मुख्य विशेषताएं क्या थी? इस आन्दोलन का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? (What were the main principles of Bhakti Movement? How for that Movement effect the society?)
उत्तर–भूमिका:- भक्ति आंदोलन से हमारा अभिप्रायः उस आंदोलन से है जो मध्यकालीन युग में उत्तर तथा दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में हिन्दू धर्म की बुराइयों को दूर करने तथा समाज में फैली कुरीतियों को समाप्त करने के लिए चलाया गया था। इसे “भक्ति आन्दोलन” के नाम भी जाना जाता है। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य समाज में फैली कुरीतियों को दूर करना तथा इस्लाम धर्म के खतरे से हिन्दू धर्म को सुरक्षित रखना था। हालांकि यह आंदोलन सारे भारत में किसी एक समय में नहीं चला और न ही इसके सभी प्रचारक समकालीन थे। इस आंदोलन के प्रचारकों ने कर्म-कांड की बजाय “भक्ति” पर अधिक बल दिया। इसलिए इसको “भक्ति आन्दोलन” तथा इसके प्रचारकों को “भक्त” कहा जाता है। कुछ पश्चिमी इतिहासकारों का विचार है कि भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति ईसाई मत की ही देन है। परन्तु डॉ. भंडारकर का विचार है कि यह आंदोलन आरंभ में “एकांतिक धर्म” था परन्तु बाद में भक्ति आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भक्ति आंदोलन के प्रमुख प्रचारक कबीर, रामानुज, नामदेव, शंकराचार्य, जयदेव, चैतन्य, गुरुनानक आदि थे। इनके विचारों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा।
(क) भक्ति आंदोलन की विशेषताएं (सिद्धान्त) (Features of Bhakti Movements) – यद्यपि भक्ति मार्ग के प्रचारकों के उपदेश पूर्ण रूप से एक-समान नहीं थे तथापि उनकी शिक्षाओं के मौलिक सिद्धान्तों में काफी एकरूपता थी। भक्तों की रचनाओं का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वे सब महापुरुष निम्न सिद्धान्तों में विश्वास रखते थे :-
1. ईश्वर की एकता :- भक्ति आंदोलन के विद्वानों का विश्वास था कि ईश्वर राम, विष्णु, अल्लाह सब एक हैं। हिन्दुओं के राम, मुसलमानों के अल्लाह इत्यादि एक ही ईश्वर के दो नाम है और इनको अलग-अलग किया जा सकता है। उस समय लोग विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा किया करते थे और ईश्वर की एकता को भूल बैठे थे। नानक और कबीर ने अपनी शिक्षाओं में ईश्वर की एकता में विश्वास रखने पर बल दिया।
2. प्रभु–भक्ति पर बल :- भक्ति आंदोलन के प्रचारकों का विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति ही मोक्ष प्राप्त करने का एक सफल साधन है। परन्तु मनुष्य को यह भक्ति श्रद्धा से करनी चाहिए। उसके मन में कोई स्वार्थ नहीं होना चाहिए। रामानुज और जयदेव ने प्रभु की भक्ति करने पर विशेष बल दिया। गुरुनानक ने भी “नाम” के जपने और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखने पर बल दिया। प्रत्येक भक्त ने भक्ति मार्ग को अपनी शिक्षाओं का आधार बनाया।
3. गुरु–भक्ति पर बल :- गुरुनानक, कबीर, नामदेव, चैतन्य, महाप्रभु आदि भक्तों ने इस बात पर ही बल दिया कि गुरु के बिना मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। गुरुनानक ने अपनी रचनाओं में लिखा है कि, “मन रूपी मैल को दूर करने के लिए सतनाम का जाप करना चाहिए तथा गुरु भक्ति वह नौका है जिसके द्वारा आनन्द की प्राप्ति हो सकती है।” सच्चा गुरु ईश्वर की कृपा से ही मिलता है। कबीर जी ने अपनी रचनाओं में इस बात पर जोर दिया है कि केवल गुरु द्वारा ही सच्चा ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
4. आत्म–समर्पण :- भक्ति मार्ग के नेताओं का विचार था कि मनुष्य को ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने आपको ईश्वर को समर्पण कर देना चाहिए। आत्म-समर्पण की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को न केवल काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार को त्यागने की आवश्यकता है परन्तु ईश्वर भक्ति करने की भी अधिक आवश्यकता है।
5. शुभ कर्मों पर बल :- भक्ति आंदोलन के प्रचारकों ने शुभ कर्मों तथा मन की पवित्रता पर बहुत बल दिया उनके अनुसार धार्मिक द्वेष, दिखावे की भक्ति तथा तीर्थ-यात्रा आदि मनुष्य को महान नहीं बना सकते। मनुष्य को शुद्ध कर्मों पर बल देने से ही ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हो सकता है। कबीर, नानक, जयदेव और रामानन्द आदि का विश्वास था कि ईश्वर मन्दिरों में नहीं वरन् मनुष्य के मन में रहता है और उसे भक्ति तथा प्रेम द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
6. भाईचारे पर बल :- भक्ति मार्ग के नेताओं ने जाति, धर्म तथा वर्ग के भेदभाव का जोरदार खण्डन किया और प्राणी मात्र की एकता पर बल दिया। ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम तथा भक्ति रखने वाला एक नीच (शूद्र) जाति का व्यक्ति एक दुराचारी ब्राह्मण से कहीं अधिक अच्छा होता है। रामानुज ने इस सम्बन्ध में लिखा है: “जात-पात पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।” गुरु नानक ने भी जाति अभिमान का विरोध किया और सबको एक समान मानते हुए, ईश्वर की सन्तान माना है।
7. मूर्ति पूजा का खण्डन:- भक्ति मार्ग के कुछ भक्त ईश्वर के साकार रूप में विश्वास रखकर मूर्ति-पूजा करते थे। परन्तु कुछ सन्त मूर्ति पूजा करने में विश्वास नहीं रखते थे। उन्होंने देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाकर पूजने का विरोध किया। नामदेव ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “एक पत्थर का देवता और झूठा भक्त एक-दूसरे को प्रसन्न नहीं कर सकते। ऐसे कई देवताओं को तुर्की ने तोड़कर सागर में फेंक दिया। परन्तु वे चुप रहे।” इसी प्रकार कबीर जी कहते थे, “यदि भगवान पत्थर में होते तो मैं पहाड़ की पूजा करता।” गुरु नानक ने कहा, “ईश्वर का कोई रंग और रूप नहीं है। उसकी मूर्ति बनाना, उसकी प्राप्ति में बाधा डालना है।”
(ख) भक्ति आंदोलन के प्रभाव (Effects of Bhakti Movements)- भक्ति-आंदोलन मध्यकालीन भारत की एक प्रभावशाली धार्मिक लहर थी, जिसने उस समय के सामाजिक तथा धार्मिक-जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। इस धार्मिक-आंदोलन का प्रभाव समाज में फैली कुरीतियों को समाप्त करने में उपयोगी सिद्ध हुआ।
1. हिन्दू–मुसलमानों में परस्पर प्रेम:- भक्ति मार्ग के नेताओं और सूफी संतों की शिक्षाओं के मौलिक सिद्धान्त लगभग एक ही थे। उन्होंने जाति, धर्म और वर्ग के मत-भेदों का कड़ा विरोध किया। और अपने श्रद्धालुओं को इस बात से प्रभावित किया कि हिन्दू और मुसलमानों में कोई भेद नहीं। ये सब एक ईश्वर की सन्तान हैं। कबीर और फरीद ऐसे भक्त थे जिन्हें हिन्दू और मुसलमान दोनों अपने धार्मिक नेता मानते थे। वातावरण में हिन्दू और मुसलमानों का आपसी द्वेष कम हो गया और उनमें एक-दूसरे के लिए प्रेम उत्पन्न हुआ।
2. तीर्थ–स्वानों में वृद्धि:- भक्ति-सिद्धान्तों के प्रचारक मध्यकालीन भारत में जनता में बहुत प्रिय थे। हिन्दू और मुसलमानों दोनों जातियों के लोग उनके श्रद्धालु थे। कबीर, फरीद और नानक दोनों ही जातियों के मार्ग-दर्शक माने जाते थे। इन भक्तों की मृत्यु के बाद इनकी याद में सुन्दर भवन बनाये गये। ये स्थान न केवल तीर्थ-स्थान होने के कारण महत्त्वपूर्ण हैं, अपितु वास्तुकला की भी अमूल्य कृतियाँ हैं।
3. धार्मिक सहनशीलता :- भक्तों की शिक्षाओं के परिणामस्वरूप देश के वातावरण में एक महान परिवर्तन आया। धार्मिक कट्टरता कम हुई और शासकीय नीति पर भी कुछ प्रभाव पड़ा। इन भक्तों द्वारा उत्पन्न किए गये वातावरण का प्रभाव मुगल काल में अधिक स्पष्ट हुआ, जब मुगल शासकों ने धार्मिक सहनशीलता की नीति को अपनाया।
4. समाज सेवा की भावना:- भक्ति आंदोलन के प्रचारकों ने अपने अनुयायिओं को निर्धनों, अनाथों, विधवाओं, अंगहीनों आदि की सेवा करने का उपदेश दिया। उन्होंने दान आदि देने के पक्ष में भी प्रचार किया। इससे प्रजा में समाज सेवा की भावना जाग्रत हुई। भक्ति आंदोलन का यह एक बहुत अच्छा प्रभाव था, विशेषकर इसलिए कि उन दिनों सरकार की ओर से दीन-दुखियों की सहायता के लिए कोई उचित प्रबन्ध नहीं था।
5. प्रादेशिक साहित्य को प्रोत्साहन:- भक्ति आंदोलन का प्रादेशिक साहित्य पर भी प्रभाव पड़ा। भक्ति मार्ग के नेता देश के भिन्न-भिन्न भागों में उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने उपदेश प्रादेशिक भाषाओं में दिए और अपनी कविताएं आदि भी उन्हीं में लिखीं। गुरु नानक ने अपनी रचनाएं पंजाबी में, कबीर ने हिन्दी में, चैतन्य ने बंगाली में और मुसलमान फकीरों ने उर्दू में रचीं। डॉ. यूसफ हुसैन के अनुसार, “कचौर जैसे कुछ भक्तों ने भारतीय साहित्य को सर्वथा नई शैली प्रदान की।”
6. सिक्खों तथा मराठों की शक्ति का उदय:- राजनीतिक क्षेत्र में भक्ति आंदोलन का एक प्रसिद्ध प्रभाव यह पड़ा कि मध्यकाल में सिक्खों की शक्ति का उदय हुआ। पंजाब में भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक गुरुनानक तथा उनके नौ उत्तराधिकारी थे। धीरे-धीरे इस आंदोलन ने सिक्ख मत का रूप ग्रहण कर लिया। इसी प्रकार महाराष्ट्र के भक्ति आंदोलन ने मराठों में एकता पैदा की और शिवाजी को स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित करने के लिए प्रेरित किया।
7. अकबर की धार्मिक सहनशीलता की नीति:- यद्यपि भक्ति-आंदोलन एक धार्मिक आंदोलन था। इसका राजाओं की नीति पर भी प्रभाव पड़ा। अकबर ने इस आंदोलन से ही प्रभावित होकर धार्मिक सहनशीलता की नीति अपनाई। उसने हिन्दुओं पर जजिया कर लगाना बन्द कर दिया। उसने हिन्दुओं से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। उसके समय लोगों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, “यह कबीर तथा नानक की ही आवाज थी जो सम्राट अकबर के मुख से बोल रही थी और इसने कट्टर पन्थियों में तूफान मचा दिया।”
निष्कर्ष :- भक्ति आंदोलन के प्रचारकों ने भारत के भिन्न-भिन्न भागों में जाकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया और समाज में फैली कुरीतियों को समाप्त करने में योगदान दिया। उनके सिद्धान्तों से समाज में भाईचारे की भावना जाग्रत हुई और उस समय के शासकों ने भी इन सिद्धान्तों से प्रभावित होकर समाज में धार्मिक सहनशीलता की नीति लागू की। समाज के लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हुई।